शनिवार, दिसंबर 12, 2009

एक गज़लनुमा रचना- हमीं ने काम कुछ ऐसा चुना है

एक गज़लनुमा रचना
हमीं ने काम कुछ ऐसा चुना है
वीरेन्द्र जैन

हमीं ने काम कुछ ऐसा चुना है
उधेड़ा रात भर दिन भर बुना है
न हो संगीत सन्नाटा तो टूटे
गज़ल के नाम पर इक झुनझुना है
समझते खूब हो नज़रों की भाषा
मिरा अनुरोध फिर क्यों अनसुना है
तुम्हारे साथ बीता एक लम्हा
बकाया उम्र से लाखों गुना है
जहाँ पर झील में धोया था चेहरा
वहाँ पानी अभी तक गुनगुना है
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

मंगलवार, नवंबर 17, 2009

गज़ल - फूल एक भी नहीं खिल सका



एक गजलनुमा रचना
वीरेन्द्र जैन
फूल एक भी नहीं खिल सका पौधे अपरंपार लगे
शेर नहीं ढूंढे मिलता है गजलों के बाजार लगे
तेरे मेरे मन के रिश्ते बरसों बरस पुराने हैं
पर जब जब दीदार हुआ तो नये नये हर बार लगे
टंगी हुयी हैं रंगबिरंगी विद्युत बल्बों की लड़ियाँ
जगमग ये तब ही होंगीं जब धाराओं से तार लगे
सुविधाओं के अम्बारों में खाली खाली लगता था
एक खुशी जब से आयी है भरा भरा घर द्वार लगे
ये तेरा रूमाल एक छोटा कपड़े का टुकड़ा है
मेरे हाथ लगा है जब से हाथों में अंगार लगे
गहनों के जैसी होती थीं किसी जमाने में गजलें
लेकिन मेरे हाथों में आयी हैं तो हथियार लगे

रविवार, अगस्त 23, 2009

जाने कितने साल हो गए खुल कर हँसे हुए

अब तो सुबह शाम रहते हैं
जबड़े कसे हुये
जाने कितने साल हो गये
खुल कर हंसे हुये

हर अच्छे मजाक की कोशिश
खाली जाती है
हंसी नाटकों में पीछे से
डाली जाती है
कांटे कुछ दिल से दिमाग तक
गहरे धंसे हुये
जाने कितने साल हो गये
खुल कर हंसे हुये


खा डाले खुदगर्जी ने
गहरे याराने भी
'आप-आप' कहते हैं अब तो
दोस्त पुराने भी
मेहमानों से लगते रिश्ते
घर में बसे हुये
जाने कितने साल हो गये
खुल कर हंसे हुये

मंगलवार, जून 30, 2009

फिर से स्कूल खुल गये

गीत

धुले धुले मुखड़े, उजली उजली पोषाकें
राहों में रंग घुल गये
फिर से स्कूल खुल गये

रास्ते गये चहक चहक
भोली सी फुदकती महक
मैदानों के सोये दिल
आज फिर उछल उछल गये
फिर से स्कूल खुल गये

किलकारी मोद भर गयी
कक्षा की गोद भर गयी
सन्नाटा भाग गया जब
कानों में शोर गुल गये
फिर से स्कूल खुल गये

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

मंगलवार, जून 16, 2009

मेरा साठवां जन्म दिन

मेरा ६० वां जन्म दिन १२ जून को मेरा ६० वां जन्म दिन था जिसे मेरे मित्रों ने धूमधाम से मनाया . व्यंग्य लेखक एवं वरिष्ठ आई ऐ एस अधिकारी ज़ब्बार ढाकवाला सुप्रसिद्ध कथा लेखिका उर्मिला शिरीष और प्रगति लेखक संघ के कार्यकारी महासचिव शैलेन्द्र कुमार शैली ने योजना बनाई और पत्रिका राग भोपाली का एक अंक मेरे ऊपर प्रकाशित किया. इस पत्रिका का विमोचन समारोह मेरे जन्म दिन पर ही आयोजित किया गया . पत्रिका का विमोचन वरिष्ठ लेखक अक्षय कुमार जैन द्बारा किया गया तथा मुझ से भी कुछ रचनाएँ सुनाने को कहा गया. इस अवसर पर भोपाल के सभी प्रमुख साहित्यकार उपस्थित हुए जिनमें राजेश जोशी, कमला प्रसाद, राम प्रकाश त्रिपाठी, मनोहर वर्मा, मुकेश वर्मा , माणिक वर्मा , ज्ञान चतुर्वेदी, मनोज कुलकर्णी ,बलराम गुमास्ता फिरोजा अशरफअनवारे इस्लाम, बादल सरोज दिल्ली से आये हुए गौरी नाथ, किशन कालजयी, हेतु भारद्वाज, आदि सौ से अधिक लोग उपस्थित थे. में सबका आभारी हूँ क्योंकि सबने मुझे धैर्य पूर्वक सुना. यह सबकुछ अनायास हुआ और बहुत सफल माना गया

शुक्रवार, जून 12, 2009

सठियाने का दिन

आज में प्रमाणपत्र के साथ सठिया गया हूँ , सुबह से सहानिभूति के फोन आ रहे हैं और में उन्हें जल्दी ही सेम टु यू की शुभकामनाएं लौटा रहा हूँ

गुरुवार, अप्रैल 23, 2009

राजतिलक पर बनवासों का कोलाहल
मेरे घर हर राजतिलक पर बनवासों का कोलाहल है

आता तो है सुख लेकिन
उत्सव पर्यन्त नहीं रहता है
मेरे घर आयोजन का
आनंदित अंत नहीं रहता हैै
सिर्फ धुंआं ही धुआं हमारी दीपमालिका का हासिल है
मेरे घर हर राजतिलक पर बनवासों का कोलाहल है

खुशियां खोयी खोयी रहतीं
आशंका के वीरानों में
नृप दशरथ की मृत्यु,खड़ाउं राज्य,
कैकेयी अपमानों में
क्या होगा इस बार घेरता हर अवसर पर कौतूहल है
मेरे घर हर राजतिलक पर बनवासों का कोलाहल है

एक अगर हल हो जाता तो
सौ सौ प्रशन खड़े रहते हैं
मेरी सीमित क्षमताओं से
सपने सदा बड़े रहते हैं
दमित कामनाओं के शव पर संगमरमरी ताजमहल है
मेरे घर हर राजतिलक पर बनवासों का कोलाहल है












देखने को ये ही दिन बाकी थे





शायद मुझे देखने को ये ही दिन बाकी थे

धोखा,झूठ, फरेब, ढोंग, मक्कार सयानापन
इन से भरा हुआ है सारे रिश्तों का आंगन
नूतन पोषाकों में सच के दुश्मन बाकी थे
शायद मुझे देखने को ये ही दिन बाकी थे

सुबह,शाम,दोपहर,रात, विश्वासों का फंासी
हर बयान सरकारी,भाषाओं से बदमाशी
शायद,किंतु,परन्तु,बशर्ते, मुमकिन बाकी थे
शायद मुझे देखने को ये ही दिन बाकी थे

जीवन की बगिया में घाटे ही घाटे निकले
फूल नहीं आये पौधों में बस कंााटे निकले
अपने हिस्से में बस लालन पालन बाकी थे
शायद मुझे देखने को ये ही दिन बाकी थे















सब अकेले हो रहे हैं





देखने को यूं बहूत से भीड़-मेले हो रहे हैं
मैं अकेला,तू अकेला सब अकेले हो रहे हैं


व्यक्ति की दुनियां निरन्तर और संकरी हो रही है
अब सभी के अलग आंगन द्वार देहरी हो रही है
और उसमें रात दिन लाखों झमेले हो रहे हैं
मैं अकेला,तू अकेला सब अकेले हो रहे हैं

दायरा विश्वास का भी और छोटा हो रहा है
क्या पढें दिल, जबकि चेहरा जड़ मुखौटा हो रहा है
बस्तियों के लोग दिनप्रति दिन बनैले हो रहे हैं
मैं अकेला,तू अकेला सब अकेले हो रहे हैं

क्या हुआ है हम भरे समुदाय मैं भटके हुये हैं
आंख में रहते नहीं हैं आंख में खटके हुये हैं
वासना से भावना के स्वर कसैले हो रहे हैं
मैं अकेला,तू अकेला सब अकेले हो रहे हैं













दे दे मोहलत और थोड़ी सी




मौत मुझको दे दे मोहलत और थोड़ी सी

मानता, मैंने तुझे निशिदिन बुलाया था
इस बहाने दर्दो-गम को बरगलाया था
झेल लूं गम की जलालत और थोड़ी सी
मौत मुझको दे दे मोहलत और थोड़ी सी

अब न सपने शेष हैं ना काम बाकी है
अब न साकी, अब न मय ,ना जाम बाकी है
शेष पर रिन्दों सी चाहत,''और थोड़ी सी''
मौत मुझको दे दे मोहलत और थोड़ी सी

अब न कोई मुस्कराता उस सलीके से
हो गये हैं जिन्दगी के रंग फीके से
है मगर अटकी मुहब्बत और थोड़ी सी
मौत मुझको दे दे मोहलत और थोड़ी सी















लिप्साओं ने सारे घर को लील लिया है।



लिप्साओं ने सारे घर को लील लिया है।

अंधी हैं वे
गंदी हैं वे
स्वारथ की सम्बन्धी हैं वे
जीवन उनने और और अश्लील किया है
लिप्साओं ने सारे घर को लील लिया है।

ममता खोयी
समता खोयी
जीवन की सुन्दरता खोयी
निर्ममता से कोमलता को छील दिया है
लिप्साओं ने सारे घर को लील लिया है।

दायें-बायें
आशंकायें
कौन जिसे आवाज लगायें
विश्वासों को दूर हजारों मील किया है
लिप्साओं ने सारे घर को लील लिया है।