मंगलवार, नवंबर 17, 2009

गज़ल - फूल एक भी नहीं खिल सका



एक गजलनुमा रचना
वीरेन्द्र जैन
फूल एक भी नहीं खिल सका पौधे अपरंपार लगे
शेर नहीं ढूंढे मिलता है गजलों के बाजार लगे
तेरे मेरे मन के रिश्ते बरसों बरस पुराने हैं
पर जब जब दीदार हुआ तो नये नये हर बार लगे
टंगी हुयी हैं रंगबिरंगी विद्युत बल्बों की लड़ियाँ
जगमग ये तब ही होंगीं जब धाराओं से तार लगे
सुविधाओं के अम्बारों में खाली खाली लगता था
एक खुशी जब से आयी है भरा भरा घर द्वार लगे
ये तेरा रूमाल एक छोटा कपड़े का टुकड़ा है
मेरे हाथ लगा है जब से हाथों में अंगार लगे
गहनों के जैसी होती थीं किसी जमाने में गजलें
लेकिन मेरे हाथों में आयी हैं तो हथियार लगे