राजतिलक पर बनवासों का कोलाहल
मेरे घर हर राजतिलक पर बनवासों का कोलाहल है
आता तो है सुख लेकिन
उत्सव पर्यन्त नहीं रहता है
मेरे घर आयोजन का
आनंदित अंत नहीं रहता हैै
सिर्फ धुंआं ही धुआं हमारी दीपमालिका का हासिल है
मेरे घर हर राजतिलक पर बनवासों का कोलाहल है
खुशियां खोयी खोयी रहतीं
आशंका के वीरानों में
नृप दशरथ की मृत्यु,खड़ाउं राज्य,
कैकेयी अपमानों में
क्या होगा इस बार घेरता हर अवसर पर कौतूहल है
मेरे घर हर राजतिलक पर बनवासों का कोलाहल है
एक अगर हल हो जाता तो
सौ सौ प्रशन खड़े रहते हैं
मेरी सीमित क्षमताओं से
सपने सदा बड़े रहते हैं
दमित कामनाओं के शव पर संगमरमरी ताजमहल है
मेरे घर हर राजतिलक पर बनवासों का कोलाहल है
देखने को ये ही दिन बाकी थे
शायद मुझे देखने को ये ही दिन बाकी थे
धोखा,झूठ, फरेब, ढोंग, मक्कार सयानापन
इन से भरा हुआ है सारे रिश्तों का आंगन
नूतन पोषाकों में सच के दुश्मन बाकी थे
शायद मुझे देखने को ये ही दिन बाकी थे
सुबह,शाम,दोपहर,रात, विश्वासों का फंासी
हर बयान सरकारी,भाषाओं से बदमाशी
शायद,किंतु,परन्तु,बशर्ते, मुमकिन बाकी थे
शायद मुझे देखने को ये ही दिन बाकी थे
जीवन की बगिया में घाटे ही घाटे निकले
फूल नहीं आये पौधों में बस कंााटे निकले
अपने हिस्से में बस लालन पालन बाकी थे
शायद मुझे देखने को ये ही दिन बाकी थे
सब अकेले हो रहे हैं
देखने को यूं बहूत से भीड़-मेले हो रहे हैं
मैं अकेला,तू अकेला सब अकेले हो रहे हैं
व्यक्ति की दुनियां निरन्तर और संकरी हो रही है
अब सभी के अलग आंगन द्वार देहरी हो रही है
और उसमें रात दिन लाखों झमेले हो रहे हैं
मैं अकेला,तू अकेला सब अकेले हो रहे हैं
दायरा विश्वास का भी और छोटा हो रहा है
क्या पढें दिल, जबकि चेहरा जड़ मुखौटा हो रहा है
बस्तियों के लोग दिनप्रति दिन बनैले हो रहे हैं
मैं अकेला,तू अकेला सब अकेले हो रहे हैं
क्या हुआ है हम भरे समुदाय मैं भटके हुये हैं
आंख में रहते नहीं हैं आंख में खटके हुये हैं
वासना से भावना के स्वर कसैले हो रहे हैं
मैं अकेला,तू अकेला सब अकेले हो रहे हैं
दे दे मोहलत और थोड़ी सी
मौत मुझको दे दे मोहलत और थोड़ी सी
मानता, मैंने तुझे निशिदिन बुलाया था
इस बहाने दर्दो-गम को बरगलाया था
झेल लूं गम की जलालत और थोड़ी सी
मौत मुझको दे दे मोहलत और थोड़ी सी
अब न सपने शेष हैं ना काम बाकी है
अब न साकी, अब न मय ,ना जाम बाकी है
शेष पर रिन्दों सी चाहत,''और थोड़ी सी''
मौत मुझको दे दे मोहलत और थोड़ी सी
अब न कोई मुस्कराता उस सलीके से
हो गये हैं जिन्दगी के रंग फीके से
है मगर अटकी मुहब्बत और थोड़ी सी
मौत मुझको दे दे मोहलत और थोड़ी सी
लिप्साओं ने सारे घर को लील लिया है।
लिप्साओं ने सारे घर को लील लिया है।
अंधी हैं वे
गंदी हैं वे
स्वारथ की सम्बन्धी हैं वे
जीवन उनने और और अश्लील किया है
लिप्साओं ने सारे घर को लील लिया है।
ममता खोयी
समता खोयी
जीवन की सुन्दरता खोयी
निर्ममता से कोमलता को छील दिया है
लिप्साओं ने सारे घर को लील लिया है।
दायें-बायें
आशंकायें
कौन जिसे आवाज लगायें
विश्वासों को दूर हजारों मील किया है
लिप्साओं ने सारे घर को लील लिया है।
गुरुवार, अप्रैल 23, 2009
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