एक गज़लनुमा रचना
वीरेन्द्र जैन
जहाँ पहुँचा वहाँ छप्पर नहीं था
मगर जो छोड़ा वो भी घर नहीं था
मुसीबत आई तो, यारी भी छूटी
वो घर होकर भी, अपने घर नहीं था
किनारा हाथ में आता तो कैसे
मैं उत्सुक था मगर तत्पर नहीं था
मुझे तुम नाम लेकर के पुकारो
मैं जब था, तब भी तो अफसर नहीं था
कहा तो कान में उसने था लेकिन
हमारा पाँव धरती पर नहीं था
उसे उम्मीद क्यों थी नौकरी की
किसी का हाथ जो सर पर नहीं था
न वो आयी, न मुझको नींद आयी
ये बिस्तर था मुँआं, दफ्तर नहीं था
उसे तो छोड़ना ही छोड़ना था
वो नौकर था कुई शौहर नहीं था
जहाँ कातिल ही मुंसिफ हो गये हों
वहाँ इल्ज़ाम किस किस पर नहीं था
वीरेन्द्र जैन
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