बुधवार, मार्च 31, 2010

एक गज़लनुमा रचना-------------------------- मगर जो छोड़ा वो भी घर नहीं था

एक गज़लनुमा रचना
वीरेन्द्र जैन


जहाँ पहुँचा वहाँ छप्पर नहीं था
मगर जो छोड़ा वो भी घर नहीं था

मुसीबत आई तो, यारी भी छूटी
वो घर होकर भी, अपने घर नहीं था

किनारा हाथ में आता तो कैसे
मैं उत्सुक था मगर तत्पर नहीं था

मुझे तुम नाम लेकर के पुकारो
मैं जब था, तब भी तो अफसर नहीं था

कहा तो कान में उसने था लेकिन
हमारा पाँव धरती पर नहीं था

उसे उम्मीद क्यों थी नौकरी की
किसी का हाथ जो सर पर नहीं था

न वो आयी, न मुझको नींद आयी
ये बिस्तर था मुँआं, दफ्तर नहीं था

उसे तो छोड़ना ही छोड़ना था
वो नौकर था कुई शौहर नहीं था

जहाँ कातिल ही मुंसिफ हो गये हों
वहाँ इल्ज़ाम किस किस पर नहीं था

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत उम्दा रचना की है अपने
    परन्तु इतने निराशावादी विचार क्यों?

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  2. जहाँ कातिल ही मुंसिफ हो गये हों
    वहाँ इल्ज़ाम किस किस पर नहीं था
    ........उम्दा रचना

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  3. जहाँ पहुँचा वहाँ छप्पर नहीं था
    मगर जो छोड़ा वो भी घर नहीं था

    किनारा हाथ में आता तो कैसे
    मैं उत्सुक था मगर तत्पर नहीं था

    उसे उम्मीद क्यों थी नौकरी की
    किसी का हाथ जो सर पर नहीं था

    उसे तो छोड़ना ही छोड़ना था
    वो नौकर था कुई शौहर नहीं था

    जहाँ कातिल ही मुंसिफ हो गये हों
    वहाँ इल्ज़ाम किस किस पर नहीं था

    मुझे ये शेर खास पसंद आये और जब बहर निकालने की कोशिश की तो बहरे हजज पर ( १२२२, १२२२, १२२ ) पर तो ये शेर बिलकुल फिट बैठ रहे है (बाकी के मैंने चेक नहीं किये है मगर वो भी लय में लगे हैं )

    फिर आप इसे "गजलनुमा" रचना क्यों कह रहे हैं समझ नहीं आया
    आपके प्रतुत्तर में
    वीनस केशरी

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  4. उसे उम्मीद क्यों थी नौकरी की
    किसी का हाथ जो सर पर नहीं था

    ye yatharth hai...pata nahi aajkal log yatharthbadi ko nirashabadi kyun kehte hain...

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  5. प्रिय वीनस केसरीजी
    आपकी टिप्पणी के लिए शुक्रिया व्यक्त करते हुए यह कहना चाहता हूं कि मुझे गज़ल के व्याकरण का ज्ञान नहीं है और ना ही मैं उसे प्राप्त करने में कोई रुचि रखता हूं क्योंकि में चाहता हूं कि मेरी रचनाओं को उनके छन्द की मात्राओं के आधार पर नहीं अपितु उनमें व्यक्त किये गये विचारों के आधार पर पढा/ पसन्द किया/परखा जाये। मैं इन्हें मज़ाक में गज़ल का मुक्त छन्द कहता हूं। वैसे गज़ल विधा के प्रति मेरे मन में बड़ा सम्मान है और जो लोग उसे सफलतापूर्वक साध रहे हैं वे प्रशंसा के पात्र हैं, किंतु मैं जानता हूं कि मेरी गजलें गज़लों के अनुशासन से बाहर चली जाती हैं और कभी अनुशासन में दिखना महज संयोग होता है इसलिए उन्हें गज़लनुमा रचना कहता हूं

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